Tuesday, December 29, 2015

डोक्टर संवेदन शील होते हैं या नहीं होते ???



डॉक्टर संवेदन शील होते हैं या नहीं होते ???
21 दिसम्बर, 2015 की शाम को जब मैं मुंबई से लौट रहा था तो प्लेन में बेठने के बाद वो एक घंटे तक रनवे पे ही खड़ा रहा, फिर डेढ़ घंटे की उड़ान. पूरे ढाई घंटे नितांत अकेला रहा. उन तन्हाई के पलों में भागचंद भैया के बारे में ही सोच रहा था जिन्हें मिलने, सम्हालने मैं बोरीवली के करुणा हॉस्पिटल गया था. पहले से ही  मैं  विचलित था ये सोच कर की 15 दिन पहले एक मामूली पेट दर्द की शिकायत का निदान एक  आखरी स्टेज के कैंसर के रूप में हुआ !! आई सी यु में उनके साथ दोनों दिन करीब 6 से 7 घंटे बिताये. उनके बेड सोर भी हो गए थे, आँतों से खून के रिसाव के कारण बहुत ही क्षीण हो गए थे. बोलने पर सांस फूल रही थी और ऊपर लगा मोनिटर टौं टौं करने लगता था. बहुत खुश हुए मुझे देखकर. कई सारी बाते की, जीवन से व अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट थे.
अस्पताल की एडमिन सिस्टर रोशेल भी मेरे साथ गयी और मुझे अस्पताल के बारे में कई बातें भी बताई. मेरे लिए वो गर्व का कारण है क्योंकि अजमेर में संत फ्रांसिस अस्पताल में मेरे साथ ऑपरेशन थिएटर में वर्ष २००० से पूर्व एक प्रशिक्षु के रूप में कार्य कर चुकी थी. उसने भय्या की सार संभाल का भी मुझे भरोसा दिलाया.
ये सब सोचते सोचते टेक ऑफ के समय मेरी आँखों से आंसू बहने लगे. बचपन में साथ बिताये एक एक पल याद आने लगे. चर्च गेट स्टेशन के सामने वाले एशियाटिक स्टोर से भैया अक्सर बहुत ही बड़ी बड़ी साइज़ के चीकू, सीताफल, अमरुद आदि मुझे दिलाते थे.
मैं इस शाश्वत सत्य से भली भांति वाकिफ हूँ की सबको एक दिन जाना है. इस ओर से मैं चिंतित नहीं था, बस यही दुआ कर रहा था की “हे इश्वर भले ही एक आध महिना उनकी जिंदगी के कम करले, पर उन्हें व परिवार के सदस्यों को पीड़ा मत देना”. इतने शांत स्वाभाव वाले, सीधे सादे इंसान को सादगी और शांति से ही अपनी शरण में ले जाना. यही दुआ में अपनी चाची के लिए भी रोजाना करता था जो छ माह पूर्व ही हमें छोड़ कर गई है.
मुझे पता ही नहीं चला की कब ढाई घंटे बीत गए. विचारों का तांटा टूटा और जयपुर पहुँच कर अन्नू के घर चला गया. मन में ये द्वन्द चल रहा था की डॉक्टर बनने के बाद जीवन भर एक दर्द से दुसरे दर्द के उपचार में और एक मरीज की समस्या से दुसरे मरीज की समस्या सुलझाने में ही दिन बीतते गए. यानी पुरे जीवन में दर्द से दर्द तक का सफ़र करते रहे. हर मरीज के ऑपरेशन से पूर्व थिएटर में “हे हमारे पिता तू जो स्वर्ग में है ...” प्रार्थना कर के ही चाकू हाथ में लिया.
ये विचार सिर्फ खाली पलों में ही आते हैं, जब किसी रोगी का इलाज़ करते हैं, तब भावुकता नहीं होती मन में, वरना क्या मैं अपनी मम्मी का कूल्हे की हड्डी का ऑपरेशन कर पाता?? जबकि ऑपरेशन टेबल  पर वो मिनटों तक नीली भी पड गई थी और उस वक़्त मैं यमदूत से भी (विचारों से) खूब झगडा था, और कुछ और वर्षों के जीवन  की मोहलत उससे मांगी थी. जिस में मुझे सफलता भी मिली.
याने!! कुल मिला कर एक सीमा के बाद एक चिकित्सक को भी प्रार्थना, दुआओं के द्वारा ऊपर वाले की मर्जी पर ही सब कुछ समर्पित करना होता है.
इन सब विचारों का मैंने आज 29 दिसम्बर, 2015 तक गहन विश्लेषण किया और अंत में मैंने अपने आपको एक भावुक इंसान होने के बजाय एक मजबूत और संवेदनशील व्यक्तित्व का धनी पाया. तभी तो इश्वर ने बड़ी से बड़ी जिम्मेदारी के कार्य सोंपे और उन्हें सफलता पूर्वक पूरा भी करवाया.

डॉ. अशोक मित्तल 29 दिसम्बर 2015

Thursday, December 3, 2015

पोस्टमोर्टम रिपोर्ट ने दिखाया आइना!
पुष्कर रोड स्थित घीसीबाई मित्तल अस्पताल में पिछले हफ्ते हुई मौत का सही समय जे.एल.एन. अस्पताल द्वारा  जारी पोस्टमोर्टम रिपोर्ट के अनुसार लगभग वही आया है जो परिज़नों को बताया गया था. याने चार दिन पहले हुई मौत एक सफ़ेद झूठ साबित हुई. इस सारे हंगामे के पीछे कुछ और कारण था जो जांच का विषय हो सकता है.
वैसे भी इतने रिस्की ऑपरेशन जिनमें व्यक्ति मौत के कगार पे खडा हो और बाई पास से 98% को जीवन दान मिल जाए, क्या कोई चमत्कार से कम है ??
समुदायों, जातियों, और धार्मिक संगठनों द्वारा इस तरह के अमानवीय प्रदर्शन अस्पतालों में करना कहाँ तक उचित है ये आज के सभ्य समाज को सोचना होगा. क्या अस्पताल किसी धार्मिक स्थल से कम है? जहां पीड़ित मानव की सेवा होती हो, जहाँ हर मरीज व उसके परिजन शांति का, सोहार्द का व सुरक्षा का माहोल चाहते हैं. वहां अन्य मरीजों पर क्या इन प्रदर्शन कारियों को दया नहीं आनी चाहिए?
क्या मरीज़ का धर्म या जाती देख कर चिकित्सक इलाज़ करता है? कभी नहीं. तो फिर क्या अगली इसी तरह की कोई अनचाही घटना हुई तो उस के परिज़न भी अपनी जाती के लोगों को इकठ्ठा करके फिर हंगामा, शोर-शराबा आदि करेंगे  और झूटे ज्ञापन देंगे?
डोक्टरों द्वारा निकाली गयी संगठित व शान्ती-पूर्ण रेली निश्चित ही एक सराहनीय कदम है. वैसे भी शांति के दूत इससे अधिक क्या कर सकते है? हाँ कुछ डोक्टर दबी जुबान में ये कहते भी पाए गए की वो रेली मित्तल अस्पताल द्वारा प्रायोजित या आयोजित थी. इस लिए वे बहिष्कार कर गए. तो क्या इन बहिष्कार करने वालों को भगवान् का दर्जा प्राप्त है जो इनके इलाज़ से कभी किसी मरीज का अनचाहा परिणाम नहीं आता या वे और ऐसे हादसे होने का इंतज़ार कर रहें हैं जिसके लपेटे में वे भी आवें ?? अन्य अस्पतालों व चिकित्सकों को ये नहीं सोचना चाहिए की अमुक की बदनामी होने से हमारा हॉस्पिटल ज्यादा चलने लग जाएगा. वैसे भी डॉक्टरों का समुदाय कई छोटे छोटे धडों में में बंटा हुआ है. IMA, PMPS, FMCTA, RMCTA, IOA, API, सरकारी, प्राइवेट डॉक्टर ऐसोसिएशन जैसे अनगिनत संगठन है जिसकी वजह से कोई एक साझा मंच नहीं है जहां से पीड़ित डॉक्टर अपनी आवाज उठा सके.
समाज व प्रशाशन को भी कड़ाई से उन नियमों का पालन करना चाहिए जिनके अनुसार अस्पतालों में की गई कोई भी क्षति दंडनीय अपराध है.
सभी अलग अलग डोक्टरों के धडों को एक होकर इन वारदातों की सख्त भर्त्सना व विरोध करना चाहिए वरना अगला हादसा किस अस्पताल में होगा व कौन डॉक्टर जेल जायेगा इसका इंतज़ार करना चाहिए.
डॉ. अशोक मित्तल  मेडिकल जर्नलिस्ट dr.ashokmittal.blogpost.g

Saturday, November 28, 2015

क्या परिज़नों के विरोध प्रकट करने का तरीका शांति पूर्ण नहीं हो सकता?



क्या परिज़नों के विरोध प्रकट करने का तरीका शांति पूर्ण नहीं हो सकता?
जिस तरह दो पत्रकार अक्सर एक ही घटना पर भिन्न भिन्न राय देते नज़र आते हैं. जो की कितनी भी विरोधाभासी हो, इसे प्रकट करने का माध्यम शब्द ही होते हैं जो या तो उनकी कलम द्वारा हमें लिखित रूप में पड़ने को मिलते है या रेडियो टीवी द्वारा सुनने को मिलते हैं. इसी तरह दो वकील अपने अपने मुवक्किल के पक्ष में कोर्ट में प्रस्तुत वाद को मौखिक या लिखित रूप में दायर करते हैं, लम्बी लम्बी बहस भी करते हैं, लेकिन हमेशा मर्यादा में रहकर. कभी भी तैश में आना या चिल्ला कर माहोल बिगाड़ना या उत्तेजित हो कर अप-शब्द कहना, हाथापाई जैसी घटना न तो होती हैं और न ही कानूनन इसकी इजाज़त व इसमें ढील दी जाती है.
तो फिर डॉक्टरों व अस्पतालों में ये सब तमाशे क्यों होते हैं रोज़ रोज़? भीड़ इकठ्ठी होना, नारे बाजी, अस्पताल कर्मियों से गाली गलोच, हाथ पाई, थप्पड़, पुलिस केस?? क्या ये सभ्य समाज की निशानी है??
पुष्कर रोड स्थित मित्तल अस्पताल में हाल ही मे हुए हंगामे व डॉक्टर की गिरफ्तारी को किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता है. हो सकता है सम्प्रेषण (Communication) की कमी रही हो. इसमें कोई शक नहीं की ओपन हार्ट सर्जरी के बाद मरीज़ को शुरू के 4 – 6 दिन वेंटिलेटर पर ही रखा जाता है. मृत्यु कब हुई इस का उत्तर भी पोस्ट मार्टम की रिपोर्ट से करीब करीब सटीक पता चल जाता है.
ये भी सर्वथा सत्य है की जिसके परिज़न  की मौत होती है वो परिवार सदमे में, गहरे दुःख व मानसिक अवसाद में डूब जाता है, हम सब की पूर्ण संवेदना है उन के साथ. लेकिन और भी मरीज़ जो वहां उपचार रत हैं, भर्ती हैं क्या वे किसी के माई-बाप, भाई-बहन नहीं, क्या वे हमारे शहर के अपने नहीं या क्या वे मनुष्य नहीं? उनका शांति पूर्ण तरीके से स्वास्थ्य लाभ लेने का हक़ कोई भी कैसे छीन सकता है ?? वो भी हंगामा, गाली गलोच, तोड़ फोड़  या  मार-पीट आदि करके ?? शहर के सभी प्रबुद्ध नागरिकों व संस्थाओं को ऐसी परिस्थिति में सहिष्णुता, ज़िम्मेदारी, धैर्य  व सकारात्मकता का परिचय देते हुए शांति पूर्ण तरीके से समस्याओं का समाधान करना चाहिए.
एक छोटे से शहर में दिल के ऑपरेशन संभव होना इस शहर का सोभाग्य है वरना अजमेर से बड़े शहरों की और भाग भाग कर अपने परिज़नों को हार्ट अटैक पश्चात ले कर जाते हुए, फिर बीच रास्ते से ही उन्हें लौटा कर लाते हुए, कई हादसे आये दिन सुनने में आते रहते थे.
आम आदमी से लेकर कई ख़ास हस्तियाँ जिन्हें इस हार्ट शल्यचिकित्सा का लाभ मिला और आज स्वत्स्थ हैं, जीवित हैं, वे कितने कृतज्ञ होंगे!! इन भावनाओं को सिर्फ महसूस किया जा सकता है, शब्दों में नहीं समेटा जा सकता. ऐसा जोखिम भरा ऑपरेशन करने वाले, दिल की चीरफाड़ करने वाले डॉक्टर इस विध्या में पारंगत होने में अपना सम्पूर्ण जीवन लगा देते है. और जीवन पर्यंत प्रतिबद्ध रहते हैं.
अस्पताल व मरीज़ के परिज़न दोनों को ही अपनी अपनी बातों, समस्याओं को साथ बैठकर सुलझानी चाहिए. जिससे की किसी भी मरीज, परिजन व अस्पताल को भविष्य में परेशानी न हो व चिकित्सक भी बेख़ौफ़ हो कर पीड़ितों की सेवा कर सके.  २८ नव २०१५ डा. अशोक मित्तल, मेडिकल जौर्नालिस्ट

Thursday, November 26, 2015

अजमेर (स्मार्ट सिटी प्रस्तावित शहर) की यातायात व्यवस्था के क्या कहने !! 6 दिशाओं में हेरात अंगेज़ ड्राइविंग है यहाँ पर।


अजमेर में यातायात व्यवस्था के जो वर्तमान हालात हैं उससे निकल कर लोग-बाग़ किस प्रकार से अपने गंतव्य तक सही सलामत पहुँच जाते हैं, इस प्रश्न  पर यदि गौर  करें  तो दुनिया के बड़े से बड़े ट्रैफिक मैनेजमेंट के धुरंधर भी दातों तले अंगुली दबा लेंगे  । 
इसे निम्न बिंदुओं (कोई एक चौराहा, सड़क आदि )  में  बाँट कर समझने का प्रयास करते हैं।   

१. चौराहों में से शहर का सबसे प्रमुख है - गांधी भवन याने  मदार गेट चौराया।  इस चौराहे पर ट्रेफिक पुलिस भी तैनात रहती है।  सबसे ज्यादा वाहन स्टेशन रोड से पृथ्वीराज मार्ग की तरफ या फिर  पृथ्वीराज मार्ग से स्टेशन रोड की ओर  दौड़ते हैं। जैसे ही एक और  लाल बत्ती  होती है वैसे ही सामने से बत्ती हरी हो जाती है। इस लाल से हरी और हरी से लाल होने के बीच जो ३० से ६० सेकंड का पीली बत्ती का समय होना चाहिए वह बहुत कम है। साथ ही एक तरफ यदि बत्ती लाल है  दूसरी तरफ हरी होने से पहले कम से कम  आधा से एक मिनट तक लाल ही रहनी चाहिए साथ ही पीली बत्ती भी नहीं होनी चाहिए ऐसा भी यहाँ  प्रावधान नहीं है। जिससे की उस दौरान पैदल चालक सड़क पार कर सकें. पैदल यात्री के लिए कोई ट्रैफिक सिग्नल की व्यवस्था नहीं है। न तो  पुलिस वाले ही इन्हे किसी प्रकार से रोकते हैं और ना ही ये पेडल वाहक सड़क पार कर सकें, इसके लिए वाहनों को रोका जाता हैं।  फलस्वरूप पैदल यात्री, साइकिल सवार, रिक्शा सवार आदि बहते ट्रैफिक में से ही सड़क पार करने की हाबड़ - तोबड़ करते हुए आपको दिख जायेंगे।
सड़क के किनारे पटरी तो बिलकुल गायब ही हो गयी है. गांधी भवन की दीवार से चिपक कर भी पेदल यात्री चल पाये तो भगवान का शुक्र मनाता है.
सबसे ज्यादा तकलीफ तो बुजुर्गों व छोटे बच्चों  के साथ वालों को इन हालात में रोड क्रॉस करने में होती है।  
२. गांधी भवन के सामने कार पार्किंग की जगह है जहाँ  8 - 10  कारें कचहरी रोड साइड और इतनी ही स्टेशन रोड वाली साइड पर खड़ी हो सकती है। इस जगह का हाल ये है कि बड़े-बड़े खड्डे, भयंकर बदबू और अनचाहे वाहन व फेरी वालों के अतिक्रमण ने इस जगह का हाल इतना बुरा कर रखा है की वाहनों के पीछे खड़े होकर लोग मॉल -मूत्र का त्याग करते करते रहते हैं। स्मार्ट सिटी का सपना संजोने वालों को ये कटु सत्य पढ़  कर शायद काफी शर्मिंदगी झेलनी पड़े। लोगों की भी मजबूरी है की ऐसी परिस्थिति  में वो कहाँ जाये। क्या कोई साफ सुथरे शौचालय हैं वहां। मदारगेट के सुलभ शौचालय भी बदबूदार होने से नागरिक खुले में जाना ठीक समझते हैं. 
३. कचहरी रोड पर दोनों ओर वाहन बेतरतीब ढंग से खड़े रहते हैं। जिससे  वाहनों की गति चींटी की चाल की माफिक रहती है ।कोटा कचौरी और पंडित कचोरी खाने वाले तो सड़क का 60%  से 70% हिस्से पर बेतरतीब वाहन छोड़कर ऐसे लपकते हैं जैसे की या तो बरसों बाद खाने को मिली है। 
४. धूआँ और ध्वनि प्रदुषण उन ऊंचाईयों पर पहुँच गया है जहां से सीधे बहरे पन और दमा जैसी घातक बीमारियों की तरफ ही रास्ता जाता है। हरेक को जल्दी है, हर एक को हॉर्न बजाना है, बजाते ही रहना है तथा हाथ का या बत्ती का सिग्नल देकर या बिना दिए ही मुड़ जाना है। 
५.  करीब हर 10 में से 4 वाहन काला और ज़हरीला धुआँ छोड़ते  धड़ल्ले से दौड़ रहे है। ये ज्यादातर ऑटो, सिटी बसें, दूध वाली  सफ़ेद जीपें, सरकारी बसें आदि हैं। शायद पोलूशन कंट्रोल का सर्टिफिकेट इन ज़हरीले धुँआ वाले वेहिकल पर लागू नहीं है। 
यह सर्टिफिकेट उन पर लागु है जो प्राइवेट कारें पहले से ही यूरो3, यूरो4 मॉडल हैं। ये पहले से ही तकनीकी रूप से इतनी ईको- मित्र  बनाई गई हैं कि इनसे प्रदूषण संभव ही नहीं हैं है। फिर भी  इन्हे ही हर ३ से ६ माह में लाइन में लग लग कर यह सर्टिफिकेट लेना होता है।       
६. रीजनल कॉलेज से ज़ी- सिनेमाल ताल एक बहुत ही सुसज्जित डिवाइडर  गया है। इस मार्ग पर यातायात 6 दिशाओं में चलता है। डिवाइडर से सट कर के दोपहिया उलटी दिशा में शार्ट कट लेते हुए तथा इसी तरह दुकानों से सटकर भी उलटी दिशा  में 2, 3, व 4 पहिया वाहन बे रोक टोक चलते रहते हैं। याने  डिवाइडर के दोनों तरफ 3 - 3 ओर बहता यातायात। कुल छः दिशाओं में। इन के अलावा आज के वयस्क और अल्प वयस्क युवा बहते ट्रैफिक के आगे से, क्रिस -क्रॉस, साइड से 90* कोण पर अचानक  बाएं से दायें  या दायें से बाएं कब और कैसे निकल जाते हैं ये भी किसी हैरत-अंगेज़ कारनामे से काम नहीं है। जिन्हे देखकर कोई अचंभित होता है, कोई गुस्सा होता है, कोई घबरा जाता है तो कोई इन से बचने के चक्कर में अपना संतुलन खो बैठता है या गिर कर हाथ पैर तुड़ा लेता है। जिसके परिणाम स्वरुप हड्डियों के फ्रेक्चर, हड्डी विशेषज्ञ  व हड्डी अस्पतालों की भी दिन दूनो बढ़ोतरी हो रही है। और जो इन सबसे बचता बचाता सही सलामत अपने ठिकाने पहुँच जाता है वह अपने आपको भाग्यशाली और  स्मार्ट नागरिक समझता है। 
 डॉ अशोक मित्तल dr.ashokmittal.blogger.com/blogger.g
प्रस्तावित 

Saturday, September 26, 2015

के ई एम अस्पताल मुंबई के डाक्टरों की पिटाई ???



के एम अस्पताल मुंबई के डाक्टरों की पिटाई ???
अस्पताल के आई सी यू  में बेड खाली नहीं था तो मरीज को जनरल वार्ड में भर्ती करने पर कल तीन डाक्टरों की सरियों से उसके परिजनों पिटाई कर दी।  टीवी पर चिकित्सकों के शरीर पर सरियों के निशान दिखाए गए। दुःख व अफ़सोस के अलावा प्रश्न ये है की अस्पतालों में साधनों की कमी का जिम्मेदार कौन है ??
डॉ अशोक मित्तल  25/09/2015 

क्या देश की सरकारें नहीं चाहती की अस्पताल सुचारू रूप से चलें? क्या अस्पताल और किसी अन्य सरकारी दफ्तर में कोई है। जहाँ आप किसी भी कर्मचारी पर हाथ उठाना तो दूर, जोर से भी बोल दें तो सरकारी काम काज में बाधा जैसी धाराओं में अंदर जाने का खतरा मंडराता रहता है। चूँकि ऐसा कोई डर अस्पतालों में तोड़फोड़, मारपीट करने वालों को नहीं है, इसी लिए आये दिन डॉक्टर्स पिटते व गालियां खाते रहते हैं। 
डॉ अशोक मित्तल  27/09/2015  

Friday, September 25, 2015

अस्पतालों में साधनों की कमी का जिम्मेदार को है ??

के ई एम अस्पताल मुंबई के डाक्टरों  पिटाई ???
अस्पताल के आई सी यू  में बेड खाली नहीं था तो मरीज को जनरल वार्ड में भर्ती करने पर कल तीन डाक्टरों की सरियों से मरीज के परिजनों पिटाई कर दी।  टीवी पर चिकित्सकों के शरीर पर कल सरियों के निशान देख कर दुःख  अफ़सोस के अलावा प्रश्न ये है की अस्पतालों में साधनों की कमी का जिम्मेदार को है ??
डॉ अशोक मित्तल

Tuesday, August 11, 2015

स्वच्छ भारत  अभियान; अजमेर का स्वच्छता के पैमाने पर पहले 400 शहरों में नाम ही नहीं।
स्वच्छ भारत - अजमेर फसड्डीयों में आगे। 
स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत के बाद 476 शहरों के सर्वे में अजमेर का कौन सा स्थान है ? यह जानने के बाद किसी भी जागरूक अजमेरी को गहरा झटका लग  सकता है।  इसी लिए थोड़ी भूमिका बनाने के बाद यह जानकारी दी जा रही है।

टॉप पर मैसूर, बंगलुरु आदि हैं तो फसड्डीयों में काफी हद तक हमारा अजमेर है। 401 वां स्थान है आज की तारीख में।


अजमेर के नुमाइंदों, अफसरों, आम नागरिकों और मंत्रियों को घोर निराशा हो गई  होती यदि सिर्फ 400 शहरों का ही सर्वे टाइम्स ऑफ़ इंडिया द्वारा करवाया गया होता।  धार्मिक नगरी, शिक्षा की राजधानी, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति आदि कई अलंकारों से सुसज्जित यह शहर गन्दगी और शर्मिंदगी की गर्त में किस गहराई में गिरा पड़ा है इसका अंदाजा शायद मोदी जी को नहीं था वरना ये स्मार्ट - स्मार्ट वाली अजमेर के मामले में घोषणा नहीं करते।
शायद 476 शहरों को ऐसी लियें सर्वे में लिया होगा क्योंकि 400 के बाद अजमेर का पहला नंबर है। याने हमें यह समझ कर आत्म संतुष्टि होगी कि आखरी 76 में (476 में से) हम टॉप पर हैं। ख़ास कर नगर निगम के इलेक्शन के मौसम में यह बात इस तरह से कहने सुनने में (की हम आखरी 76 में अव्वल हैं) मन को अच्छी भी लगेगी और वोटरों का दिल लुभाने में भी कामयाब रहेगी।

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स्वच्छ भारत - अजमेर फसड्डीयों में आगे।

स्वच्छ भारत - अजमेर फसड्डीयों में आगे। 
स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत के बाद 476 शहरों के सर्वे में अजमेर का कौन सा स्थान है ? यह जानने के बाद किसी भी जागरूक अजमेरी को गहरा झटका लग  सकता है।  इसी लिए थोड़ी भूमिका बनाने के बाद यह जानकारी दी जा रही है।

टॉप पर मैसूर, बंगलुरु आदि हैं तो फसड्डीयों में काफी हद तक हमारा अजमेर है। 401 वां स्थान है आज की तारीख में।

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Saturday, February 21, 2015

फिर एक आशाराम ! इस बार देश द्रोही के रूप में। पट्रोलियम मंत्रालय में ये "आशाराम" चपरासी के कार्य के साथ साथ "टॉप सीक्रेट" दस्तावेज कॉर्पोरेट्स को उपलब्ध कराने के संगीन जुर्म में जेल भेज दिया गया।
अजमेर के अच्छे दिन कब आएंगे ???

(1) हर वर्ष महा शिवरात्रि पर पूजा, अर्चना, ध्यान, साधना, रुद्राभिषेक, व्रत, उपवास, भंडारा, भांग, ठंडाई न जाने किन किन अन्य उपायों से महादेव को  मनाने में अपनी ऊर्जा खर्च करते हैं लोग। सामूहिकता में भजन कीर्तन वो भी फ़िल्मी धुनों पर, ये भी एक विधि है उसे जगाने की, याद दिलाने की। हरेक की अपनी समस्या है उसे वो सुनता है और दूर भी करता है, तभी तो सब फ़रियाद करते हैं।
अजमेर की समस्याओं का  रोना किसके आगे रोया जावे ???? ये सबसे गंभीर प्रश्न है! कौन है वो महादेव ? क्या वो मेयर है? कमिश्नर है या कलेक्टर है ? या यहां के वो चुने हुए नेता हैं जो मंत्री पदों को सुशोभित कर रहे हैं। विपक्ष में बैठे कांग्रेस के नेता हैं या सरकार से मोटी  मोटी तनखा उठाने वाला सरकारी तामझाम??

अजमेर के अच्छे दिन कब आएंगे ???

(2) दूसरा प्रश्न है शहर के महादेवों की स्तुति किस विधि से की जाये, कैसे उन्हें याद दिलाया जाये की शहर दिन पर दिन कम गंदे से ज्यादा से ज्यादा गंदा हो रहा है ? आना सागर पानी से भरा है लेकिन रोजाना इसमें हज़ारों लीटर तरल,  गन्दी  नालियों का मिक्स हो रहा है, झील के चारों ओर जगह जगह प्लास्टिक की थैलियां एवं अन्य तरह के कचरों का ढेर, उस ढेर में से छोटे छोटे बच्चे कुछ ढूंढ़ कर - बड़े बड़े बोरों  में भरते सुबह सुबह दिखते रहते है ! ये बच्चे शायद एक वक़्त की रोटी के जुगाड़ में अपनी जिंदगी की रोटी उस गन्दगी में  हैं?

ऐसे कई ज्वलन्त प्रश्न आज अजमेर शहर के नागरिकों के मन में हैं ?



अजमेर के अच्छे दिन कब आएंगे ???

(3) गन्दगी और सफाई! इस समस्या को लेकर अजमेर में "रन फॉर अजमेर" नामक दौड़ में  स्वच्छ और स्वस्थ अजमेर की मनो कामना लिए कई युवाओं, वृद्धों, मीडिया से पत्रकारों, कई अन्य संस्थानों के लोगों व् नगर निगम के अधिकारियों को भी बड़ चढ़ कर पूरे जोशो खरोश के साथ पटेल मैदान टू पटेल भागते देखा गया था। दिखावे के लिए शहर की मुख्य सड़कों की सफाई कर दी गयी थी।  सबने अपनी अपनी पीठ थपथपाकर कहा हमने वो कर दिया जो आज तक नहीं हुआ? ये तो सही है की बहुत अच्छा काम किया।  लेकिन मीडिया को ये नहीं भूलना चाहिए कि जब महादेव को ही रोज़ रोज़ अपनी समस्याएं स्मरण करानी पड़ती हैं तो आज के इन महादेवों को क्या "RUN for AJMER" की सिर्फ एक डोज़ काफी है?

अजमेर के अच्छे दिन कब आएंगे ???
(4) जनता जनारदन के लिए तो मीडिया ही है नारद मुनि, जो कहीं भी जाकर जनसाधारण की बात सत्ता और पदों पर बैठे इन आज के महादेवों तक पहुंचा सकते हैं, उनसे मनवा सकते हैं। तो निष्कर्ष ये निकला कि प्रजा का महादेव तो मीडिया ही है। अजमेर का मीडिया और नागरिक दोनों साथ साथ जागें, आवाज़ बुलंद करें तो ही कुछ शहर के साफ़ होने की, विकास / प्रगति (ये भी बहस का मुद्दा है - क्या हो !!) होने की संभावना है।

(5) याने कि जनता मीडिया से, मीडिया पदाधिकारियों तक अपनी बात पहुंचाए।  यहाँ "हम लोग" यह भी समझ लें कि आज का सबसे पावरफुल मीडिया है - सोशल मीडिया। जिसने आम आदमी की मीडिया पर निर्भरता को नगण्य सा कर दिया है। इ-मेल, फेसबुक, व्हट्सऐप, बल्क  ऐस.एम.एस, ब्लॉग, फोटो अटेचमेंट, वॉइस् मेल, विडिओ मेल आदि आपके हाथ में देकर।  समझो हर व्यक्ति के हाथ में कलम है, अखबार है, चैनल है, अपना खुद का मीडिया है। अपनी आवाज़ उठाने के साधन हैं।

 मैनें एक समस्या और उसका साधन आपके हाथ में ही है ऐसा आपको बताने का प्रयास किया है।  यदि आप भी अजमेर के लिए सोचते हैं तो आइये और करिये इस का उपयोग।
डॉ. अशोक मित्तल, 20 फर. 15

Thursday, February 19, 2015

अच्छे दिन आने शुरू हो गए हैं !!!

मोदी जी के १० लाख के सूट ने सबको अच्छे दिनों का अहसास कराया । सूट पहन कर ओबामा से चाय पर चर्चा। सूट पर अलग अलग रानीतिक दलों के नेताओं द्वारा कसे गए तानों की चर्चा। कीमत को लेकर चर्चा। कीमत के कयास लगे सात लाख से दस लाख। कहाँ से आया, किसने सिला, क्या लिखा है, कहाँ नाम लिखा है ? क्यों इतना महँगा? संसार में और किस नेता ने ऐसा नाम लिखा कपड़ा पहना? कई तरह की भिन्न भिन्न प्रतिक्रियाएं और विचार मंथन। पूरा मीडिया और पूरा इंडिया मानो इस "चर्चा रुपी स्वाइन फ्लू" से ग्रस्त हो गया।
मोदी जी ने भी अब सबको दी टेमीफ्लू रुपी गोली, लगवाकर उसी सूट की बोली। सूट की अकेले की बोली सवा करोड़ से ऊपर पहुंची है। अन्य गिफ्टों से धन आएगा सो अलग।  सारा पैसा चेरिटी में दान दे दिया जाएगा। याने कुछ एक जरुरत मंदों के तो अच्छे दिन आना पक्का ही है।
अन्य नेता भी अब तक ऐसा करते या आज से भी इस से सबक लेकर अनुसरण करें तो उम्मीद ही नहीं पक्की गारंटी है की सबके अच्छे दिन आएंगे !!!!
डॉ. अशोक मित्तल 19 -02 -2015

 


Tuesday, February 10, 2015

नगर निगम अजमेर का भी प्रेग. टेस्ट + पोसिटिव आया है।  अगस्त में होगी डिलीवरी।
विस्तृत विवरण "डीएनऐ रिपोर्ट" से पता चलेगा। मेयर A, B, C 

Monday, February 9, 2015

भाजपा की आशा की "किरण" (Kiran) ने मोदी के बेड़े के बाँधी बेड़ी (Bedi). मोदी ने आम आदमी की कजरी (Kejari) को किया चाय पर आमंत्रित। अरविन्द भाई मफलर और खांसी का ध्यान रखना।

Sunday, February 8, 2015

स्वाइन फ्लू से बचाव :- व्हाट्स-एप पर कपूर + इलायची को सूंघने या फिर गिलोय का अर्क बना कर पीने जैसे कई भांति भांति के फॉर्मूलों के सन्देश आ रहे हैं। मैंने आयुर्वेदाचार्यों से इस बारे में चर्चा की तो उन्होंने बताया कि उपरोक्त उपाय या फॉर्मूलों का कोई ठोस आधार नहीं है। बल्कि उन्होंने जो राय दी वह निम्न है:-
१. भूखे पेट घर से नहीं निकलें . २. धूणी के रूप में पूरे घर में नीम की सूखी  पत्ती  + गूगल  का धूआँ रोज़ करना चाहिए।  ३. दसमूलरारिष्ट व महारासादि की २ - २ चम्मच सुबह शाम लेनी चाहिए। ४. काढ़ा - १० पत्ते तुलसी, १० काली मिर्च, १ लोंग, १ चुटकी हल्दी, १ टुकड़ा अदरक, को १ गिलास पानी में उबाल कर सेवन करने से रोग निरोधक क्षमता बढ़ेगी। ५. मास्क का उपयोग  ६. भीड़ भाड़ से दूर  ७. खांसते - छींकते वक़्त मुंह पर रूमाल रखें
एलोपेथी में टेमीफ्लू (ओसेल्टामिविर)  की गोली बचाव व उपचार दोनों में भिन्न भिन्न मात्रा में दी जाती है।जो सरकारी अस्पतालों में मरीज़ को फ्री दी जाती है। 
डॉ. अशोक मित्तल।  ०७-०२-२०१५

Saturday, February 7, 2015

स्वाइन फ्ल्यू :- जहाँ एक ओर दुनिया इसे सर्वाधिक अर्जेंट मान कर कार्य कर रही है वहीं दूसरी और क्या हम दिखावा और ढिंढोरा वाली पुरानी नीति अपना कर जनता को मूर्ख बना रहे हैं।

स्वाइन फ्ल्यू :- क्या हम  दिखावा और ढिंढोरा वाली पुरानी नीति अपना कर जनता को मूर्ख बना रहे हैं?
१. स्वाइन फ्ल्यू का टींका इस बार इतना कारगर नहीं है। वाइरस के म्युटेशन की वज़ह से। एच १ इन १  का म्युटेशन होकर ऐच ३ एन  आने का अंदेशा है।
२. आज ४३ देशों में इसका आतंक छाया हुआ है।
३. इसकी महामारी ने अमेरिका में १५ बच्चों को निगल लिया है।
४. अमेरिका का सी.डी.सी.  याने सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल हर हफ्ते स्वाइन फ्ल्यू पर साप्ताहिक अपडेट देता है।
इंडिया में स्वाइन पर आखरी गाइड लाइन भारत सरकार ने २००९ में दी थी।
५. अमेरिका में हर सिटीजन इसके उपचार, टेस्ट, दवा आदि की जानकारी स्मार्ट फ़ोन के विभिन्न एप्प्स - CDC Influenza, Flu Defender, Everyday Health Flu Map website, पर है।
जबकि हमारे यहां घोर अन्धेरा है. याने darkness.com  का वर्चस्व है।
५. Urgent Care 24/7 Medical Help: द्वारा  किसी भी वक़्त आप डॉक्टर से संपर्क  कर सकते है। यह एप उन डॉक्टर्स का रजिस्टर रखता है जो  उस समय पर सेवा देने हेतु उबलब्ध होते हैं।
 यहाँ सरकारी  महकमे के अलावा  जानकारी किसी को नहीं है. प्राइवेट अस्पताल या डॉक्टर्स  को कोई दिशा निर्देश नहीं ज़ारी हुए हैं आज तक ।
याने जहाँ एक ओर दुनिया इसे सर्वाधिक अर्जेंट मान कर कार्य कर रही है वहीं दूसरी और क्या हम  दिखावा और ढिंढोरा वाली पुरानी नीति अपना कर जनता को मूर्ख बना रहे है?

डॉ.  अशोक मित्तल।  ०८-०२-२०१५

Thursday, February 5, 2015

सुना है पूर्व मुख्य मंत्री ने पश्चिम की ओर याने मुंबई प्रस्थान कर लिया है इलाज़ हेतु। शायद मुफ्त दवा योजना की असलियत पता चल गई है।

सुना है पूर्व मुख्य मंत्री ने पश्चिम की ओर याने मुंबई प्रस्थान कर लिया है इलाज़ हेतु।  शायद मुफ्त दवा योजना की असलियत पता चल गई है।
 स्वाइन फ्ल्यू कंट्रोल में कोताही न बरतने के निर्देश का मतलब क्या?
अब जैसे जैसे स्वाइन मौतों का खौफ जन साधारण में बढ़ता जा रहा है वैसे वैसे ही सरकार भी इससे जूझने के रोज़ नए उपाय कर रही है। यानी नींद में सोयी हुई सरकार ने सबसे पहले तो डॉक्टरों को ही सदा की भाँती कोताही न बरतने का आदेश दे डाला। और अपनी गर्दन सुरक्षित कर ली। तो क्या डॉक्टर्स कौताही बरतने के आदि हैं? आई.एम.ए. के लिए भी यह एक सवाल है?
दवा किसे देनी, स्वाब टेस्ट किसका करवाना, भर्ती किसे करना और किसे न करना क्या डॉक्टर के हाथ में है? ये सब सरकार की सहूलियत पर निर्भर है। स्वाइन फ्ल्यू मरीज़ों की लम्बी कतारें इस का जीवित प्रमाण हैं कि सरकार के इंतज़ाम कितने माकूल हैं। डॉक्टरं को तो साधनों के हिसाब से ही कार्य करना होता है।
जागरूकता अभियान भी कितना सजगता से चलाया जा रहा है - सबको विदित है।  सबसे विकट स्थिति तो तब होगी यदि सभी लोग वास्तव में जागरूक हो जाएं। ऐसा हो गया तो अस्पतालों का द्रश्य एक सेवा का मंदिर न होकर कुश्ती के अखाड़े में बदल जाएगा। क्यूंकि वहां हर सुविधा की कमी है।  तो सोई हुई सरकार और सोई हुई जनता और जागा हुआ स्वाइन फ्ल्यू। जीतेगा कौन और मरेगा कौन?
अरे भाई घर घर जाकर जोधपुर, जयपुर में क्या सर्वे हो रहा है? कोई वोट मांगने थोड़े ही जाना है जिस तरह चुनाव प्रचार में जाते है?  इतना सरकारी अमला, पैसा, ईंधन खर्च करके क्या हासिल हुआ?
किसी भी महामारी से निपटने के दो साधारण कदम होते हैं। पहला - बचाव। दूसरा - उपचार।
तो बचाव के क्या उपाय हुए? सफाई जो एक पहली आवश्यकता है वो तो हुई नहीं। जगह  जगह गन्दगी के ढेर  में डेरा जमाये बैठी बीमारियों की और ध्यान देते और घर घर जाकर सर्वे में खर्च किया धन. ईंधन और मेन पावर को सफाई में लगाया होता तो 40% प्रिवेंशन (बचाव) तो ऐसे ही हो जाता।
सरकार के अनगिनत प्राथमिक चिकित्सा केंद्र, सेटेलाइट अस्पताल, जिला अस्पताल, आदि पर उपचार, निदान आदि की सुविधाएं यदि समय रहते मुहैय्या करा दी जाती तो न तो सारा बर्डन राज्य के 6 मेडिकल कॉलेजों पर पड़ता और न ही ये बिमारी आज दैत्य का रूप धारण करती।
पहली बार तो इस बिमारी का अवतार हुआ नहीं है? पहले भी कई जानें निगल चुकी है।  मौसम का भी पता था कि इसके लिए माकूल है।
बच्चों की प्रार्थना सभा बंद करने से क्या होगा? ये हर किसी के समझ से बाहर है। कक्षा में तो सब पास ही बैठते है।  इससे अच्छा तो प्रार्थना सभा होती  रहें, उसमें  सबको स्वाइन फ्ल्यू के प्रति जागरूक किया जाये, किसी भी बच्चे  को यदि फ्ल्यू के लक्षण हों तो उसे निदान हेतु भेजा जाये, क्यूंकि यदि कोई फ्ल्यू से ग्रसित छात्र सीधे कक्षा में चला गया तो औरों को भी चपेट में ले लेगा।
क्या जयपुर, अजमेर के कलेक्टर इन प्रार्थना सभाओं को बंद करने के फरमान का वैज्ञानिक स्पष्टीकरण देंगे?
इन सबसे अच्छा तो सभी अस्पतालों में टेस्टिंग की सुविधाएँ, इलाज़ के लिए गोलियों की उपलब्धता, हर सरकारी अस्पताल में में बिस्तर, टेस्टिंग की सिर्फ दो मशीनों की जगह ज्यादा मशीनें आदि पर अभी भी ध्यान दें तो अच्छा होगा।
रह रह कर याद आ रहा है सरकारी अमले को, रोज़ नई  तरतीब बैठाई जा रही है।  आज ध्यान आया की दो मशीनों से तो सिर्फ 80 - 100 मरीज़ों का ही स्वाइन टेस्ट हो सकता है तो आज जयपुर में एक प्राइवेट कंपनी को भी ठेका दे दिया। ये सब पहले क्यों नहीं किया? अन्य शहरों और कस्बों में ये टेस्ट की सुविधा क्यों नहीं?
ये सब सोई हुई जनता और उनके सोये हुए नसीब का फल है शायद। इसी लिये राज्य के सबसे प्रसिद्ध और माने हुए न्यूरोलॉजिस्ट को पूरे अभियान का डायरेक्टर बनाया गया है।
आम जनता तो प्रार्थना ही कर सकती है की स्वाइन फ्ल्यू जल्द से जल्द ख़त्म हो, मौतों के तांडव से मेरा देश मुक्त हो। राज्य सरकारों को सद्बुद्धि दे की इस जान लेवा वाइरस से युद्ध स्तर पर लड़ने की समय  बद्ध  योजना बनाये. रोज़ नई  मन लुभावन तरकीब छोड़ने से कुछ हासिल नहीं होने वाला।
डॉ. अशोक मित्तल 05 -02 -2015

Tuesday, February 3, 2015

03-02-2015  स्वाइन फ्लू “हाई अलर्ट” या “हाई प्रोफाइल अलर्ट” ??

स्वाइन फ्लू का आज से राजस्थान सरकार ने हाई अलर्ट जारी कर दिया है।  सवाल ये है की आज अचानक ये हाई अलर्ट क्यों? चर्चा  है की तीन दिन पहले पूर्व मुख्यमंत्री और अब राज्य के गृह मंत्री स्वाइन फ्लू पॉजिटिव पाये गए है। आम जनता को इस हाई अलर्ट से क्या स्वाइन फ्लू नहीं होने की या हो जाये तो इन हाई प्रोफाइल लोगों की तरह तुरंत टेस्ट और इलाज़ की गारंटी मिल जाएगी? कदापि नहीं।  सीमित स्वाइन फ्लू टेस्ट के साधन, डॉक्टरों की वही सीमित संख्या, टेमीफ्लू दवा की कमी, और ऊपर से वाइरस का म्यूटेशन, कुल मिला कर काफी चिंता जनक स्थिति है स्वस्थ्य सेवाओं की।  
गरीब आदमी मर्ज़ी से टेस्ट कराये तो 500 कहाँ से लाये? डॉक्टर यदि उसका टेस्ट नहीं करे और बाद में स्वाइन पॉजिटिव निकल जाये तो ये निश्चित है की डॉ. साहब कहाँ जायेंगे?
हाई अलर्ट का मतलब शायद सरकार के मायनो में सिर्फ इसे जारी करना हो या हाई प्रोफाइल व्यक्तियों पर तुरंत ध्यान देने का इशारा हो।  लेकिन मेडिकल पॉइंट ऑफ़ व्यू से एक युद्ध जैसी स्थिति से निपटने से भी बेहतर  तैयारी का मतलब  ही हाई अलर्ट है।
ऐसी विज्ञप्ति जारी करके, बच्चों की प्रार्थना सभा बंद करके और डॉक्टरों की छुट्टियों की छुट्टी करके सरकारी अफसरों और नेताओं ने जहाँ एक ओर अपनी गर्दन की सेफटी कर ली है वहीँ  डॉक्टरों की गर्दन पर तलवार लकटा  दी है यानी कि अब यदि कोई हादसा हुआ तो सारा ठीकरा डॉक्टरों के माथे पर।  फिर कोई कोई या तो ससपेंड या फिर जेल में।
  2015
में अब तक 259 स्वाइन पॉजिटिव आये  जिनमे से 52 की दुर्भाग्यवश मौत हो चुकी है करीब 20 % की मृत्युदर से।
टेस्ट की रिपोर्ट 12 घंटे में देने के फरमान का स्वागत है।   पिछले सीजन में तो मरणोपरांत  सात - सात दिन  बाद रिपोर्ट आती थी।
स्कूलों  में प्रार्थना सभा बंद किये जाने का भी स्वागत है। लेकिन रेलवे स्टेशनों, बस स्टैंडों, न्यायालयों, बिल जमा करने हेतु व् अस्पतालों में मरीजों  की लम्बी लम्बी कतारें चाहे डॉक्टर को दिखाने को हो या फिर मुफ्त दवा लेने को हो - यहां एकत्रित भीड़ में से हर कोई अपने जल्दी नंबर आने की प्रार्थना करता रहता है और ख़ैर  मनाता रहता है की कहीं उसे भी भेंट स्वरुप लाइन में लगा कोई व्यक्ति स्वाइन फ्लू का वायरस देदे।  इनकी प्रार्थनाओं पर भी सरकार को गौर करने की आवश्यकता है।  (क्रमशः) डॉ. अशोक मित्तल.