Thursday, February 5, 2015

 स्वाइन फ्ल्यू कंट्रोल में कोताही न बरतने के निर्देश का मतलब क्या?
अब जैसे जैसे स्वाइन मौतों का खौफ जन साधारण में बढ़ता जा रहा है वैसे वैसे ही सरकार भी इससे जूझने के रोज़ नए उपाय कर रही है। यानी नींद में सोयी हुई सरकार ने सबसे पहले तो डॉक्टरों को ही सदा की भाँती कोताही न बरतने का आदेश दे डाला। और अपनी गर्दन सुरक्षित कर ली। तो क्या डॉक्टर्स कौताही बरतने के आदि हैं? आई.एम.ए. के लिए भी यह एक सवाल है?
दवा किसे देनी, स्वाब टेस्ट किसका करवाना, भर्ती किसे करना और किसे न करना क्या डॉक्टर के हाथ में है? ये सब सरकार की सहूलियत पर निर्भर है। स्वाइन फ्ल्यू मरीज़ों की लम्बी कतारें इस का जीवित प्रमाण हैं कि सरकार के इंतज़ाम कितने माकूल हैं। डॉक्टरं को तो साधनों के हिसाब से ही कार्य करना होता है।
जागरूकता अभियान भी कितना सजगता से चलाया जा रहा है - सबको विदित है।  सबसे विकट स्थिति तो तब होगी यदि सभी लोग वास्तव में जागरूक हो जाएं। ऐसा हो गया तो अस्पतालों का द्रश्य एक सेवा का मंदिर न होकर कुश्ती के अखाड़े में बदल जाएगा। क्यूंकि वहां हर सुविधा की कमी है।  तो सोई हुई सरकार और सोई हुई जनता और जागा हुआ स्वाइन फ्ल्यू। जीतेगा कौन और मरेगा कौन?
अरे भाई घर घर जाकर जोधपुर, जयपुर में क्या सर्वे हो रहा है? कोई वोट मांगने थोड़े ही जाना है जिस तरह चुनाव प्रचार में जाते है?  इतना सरकारी अमला, पैसा, ईंधन खर्च करके क्या हासिल हुआ?
किसी भी महामारी से निपटने के दो साधारण कदम होते हैं। पहला - बचाव। दूसरा - उपचार।
तो बचाव के क्या उपाय हुए? सफाई जो एक पहली आवश्यकता है वो तो हुई नहीं। जगह  जगह गन्दगी के ढेर  में डेरा जमाये बैठी बीमारियों की और ध्यान देते और घर घर जाकर सर्वे में खर्च किया धन. ईंधन और मेन पावर को सफाई में लगाया होता तो 40% प्रिवेंशन (बचाव) तो ऐसे ही हो जाता।
सरकार के अनगिनत प्राथमिक चिकित्सा केंद्र, सेटेलाइट अस्पताल, जिला अस्पताल, आदि पर उपचार, निदान आदि की सुविधाएं यदि समय रहते मुहैय्या करा दी जाती तो न तो सारा बर्डन राज्य के 6 मेडिकल कॉलेजों पर पड़ता और न ही ये बिमारी आज दैत्य का रूप धारण करती।
पहली बार तो इस बिमारी का अवतार हुआ नहीं है? पहले भी कई जानें निगल चुकी है।  मौसम का भी पता था कि इसके लिए माकूल है।
बच्चों की प्रार्थना सभा बंद करने से क्या होगा? ये हर किसी के समझ से बाहर है। कक्षा में तो सब पास ही बैठते है।  इससे अच्छा तो प्रार्थना सभा होती  रहें, उसमें  सबको स्वाइन फ्ल्यू के प्रति जागरूक किया जाये, किसी भी बच्चे  को यदि फ्ल्यू के लक्षण हों तो उसे निदान हेतु भेजा जाये, क्यूंकि यदि कोई फ्ल्यू से ग्रसित छात्र सीधे कक्षा में चला गया तो औरों को भी चपेट में ले लेगा।
क्या जयपुर, अजमेर के कलेक्टर इन प्रार्थना सभाओं को बंद करने के फरमान का वैज्ञानिक स्पष्टीकरण देंगे?
इन सबसे अच्छा तो सभी अस्पतालों में टेस्टिंग की सुविधाएँ, इलाज़ के लिए गोलियों की उपलब्धता, हर सरकारी अस्पताल में में बिस्तर, टेस्टिंग की सिर्फ दो मशीनों की जगह ज्यादा मशीनें आदि पर अभी भी ध्यान दें तो अच्छा होगा।
रह रह कर याद आ रहा है सरकारी अमले को, रोज़ नई  तरतीब बैठाई जा रही है।  आज ध्यान आया की दो मशीनों से तो सिर्फ 80 - 100 मरीज़ों का ही स्वाइन टेस्ट हो सकता है तो आज जयपुर में एक प्राइवेट कंपनी को भी ठेका दे दिया। ये सब पहले क्यों नहीं किया? अन्य शहरों और कस्बों में ये टेस्ट की सुविधा क्यों नहीं?
ये सब सोई हुई जनता और उनके सोये हुए नसीब का फल है शायद। इसी लिये राज्य के सबसे प्रसिद्ध और माने हुए न्यूरोलॉजिस्ट को पूरे अभियान का डायरेक्टर बनाया गया है।
आम जनता तो प्रार्थना ही कर सकती है की स्वाइन फ्ल्यू जल्द से जल्द ख़त्म हो, मौतों के तांडव से मेरा देश मुक्त हो। राज्य सरकारों को सद्बुद्धि दे की इस जान लेवा वाइरस से युद्ध स्तर पर लड़ने की समय  बद्ध  योजना बनाये. रोज़ नई  मन लुभावन तरकीब छोड़ने से कुछ हासिल नहीं होने वाला।
डॉ. अशोक मित्तल 05 -02 -2015

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