डॉक्टर संवेदन शील होते हैं
या नहीं होते ???
21 दिसम्बर, 2015 की शाम को
जब मैं मुंबई से लौट रहा था तो प्लेन में बेठने के बाद वो एक घंटे तक रनवे पे ही
खड़ा रहा, फिर डेढ़ घंटे की उड़ान. पूरे ढाई घंटे नितांत अकेला रहा. उन तन्हाई के
पलों में भागचंद भैया के बारे में ही सोच रहा था जिन्हें मिलने, सम्हालने मैं बोरीवली
के करुणा हॉस्पिटल गया था. पहले से ही मैं
विचलित था ये सोच कर की 15 दिन पहले एक मामूली
पेट दर्द की शिकायत का निदान एक आखरी
स्टेज के कैंसर के रूप में हुआ !! आई सी यु में उनके साथ दोनों दिन करीब 6 से 7 घंटे
बिताये. उनके बेड सोर भी हो गए थे, आँतों से खून के रिसाव के कारण बहुत ही क्षीण हो
गए थे. बोलने पर सांस फूल रही थी और ऊपर लगा मोनिटर टौं टौं करने लगता था. बहुत
खुश हुए मुझे देखकर. कई सारी बाते की, जीवन से व अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट थे.
अस्पताल की एडमिन सिस्टर
रोशेल भी मेरे साथ गयी और मुझे अस्पताल के बारे में कई बातें भी बताई. मेरे लिए वो
गर्व का कारण है क्योंकि अजमेर में संत फ्रांसिस अस्पताल में मेरे साथ ऑपरेशन
थिएटर में वर्ष २००० से पूर्व एक प्रशिक्षु के रूप में कार्य कर चुकी थी. उसने भय्या
की सार संभाल का भी मुझे भरोसा दिलाया.
ये सब सोचते सोचते टेक ऑफ
के समय मेरी आँखों से आंसू बहने लगे. बचपन में साथ बिताये एक एक पल याद आने लगे.
चर्च गेट स्टेशन के सामने वाले एशियाटिक स्टोर से भैया अक्सर बहुत ही बड़ी बड़ी साइज़
के चीकू, सीताफल, अमरुद आदि मुझे दिलाते थे.
मैं इस शाश्वत सत्य से भली
भांति वाकिफ हूँ की सबको एक दिन जाना है. इस ओर से मैं चिंतित नहीं था, बस यही दुआ
कर रहा था की “हे इश्वर भले ही एक आध महिना उनकी जिंदगी के कम करले, पर उन्हें व
परिवार के सदस्यों को पीड़ा मत देना”. इतने शांत स्वाभाव वाले, सीधे सादे इंसान को
सादगी और शांति से ही अपनी शरण में ले जाना. यही दुआ में अपनी चाची के लिए भी
रोजाना करता था जो छ माह पूर्व ही हमें छोड़ कर गई है.
मुझे पता ही नहीं चला की कब
ढाई घंटे बीत गए. विचारों का तांटा टूटा और जयपुर पहुँच कर अन्नू के घर चला गया.
मन में ये द्वन्द चल रहा था की डॉक्टर बनने के बाद जीवन भर एक दर्द से दुसरे दर्द
के उपचार में और एक मरीज की समस्या से दुसरे मरीज की समस्या सुलझाने में ही दिन
बीतते गए. यानी पुरे जीवन में दर्द से दर्द तक का सफ़र करते रहे. हर मरीज के ऑपरेशन
से पूर्व थिएटर में “हे हमारे पिता तू जो स्वर्ग में है ...” प्रार्थना कर के ही चाकू
हाथ में लिया.
ये विचार सिर्फ खाली पलों
में ही आते हैं, जब किसी रोगी का इलाज़ करते हैं, तब भावुकता नहीं होती मन में,
वरना क्या मैं अपनी मम्मी का कूल्हे की हड्डी का ऑपरेशन कर पाता?? जबकि ऑपरेशन
टेबल पर वो मिनटों तक नीली भी पड गई थी और
उस वक़्त मैं यमदूत से भी (विचारों से) खूब झगडा था, और कुछ और वर्षों के जीवन की मोहलत उससे मांगी थी. जिस में मुझे सफलता भी मिली.
याने!! कुल मिला कर एक सीमा
के बाद एक चिकित्सक को भी प्रार्थना, दुआओं के द्वारा ऊपर वाले की मर्जी पर ही सब
कुछ समर्पित करना होता है.
इन सब विचारों का मैंने आज 29
दिसम्बर, 2015 तक गहन विश्लेषण किया और अंत में मैंने अपने आपको एक भावुक इंसान
होने के बजाय एक मजबूत और संवेदनशील व्यक्तित्व का धनी पाया. तभी तो इश्वर ने बड़ी
से बड़ी जिम्मेदारी के कार्य सोंपे और उन्हें सफलता पूर्वक पूरा भी करवाया.
डॉ. अशोक मित्तल 29 दिसम्बर
2015